रावत की घेराबंदी में कोई कसर नहीं छोड़ रही भाजपा

देहरादून। विधानसभा चुनाव के लिए मतगणा के दिन जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं, प्रत्याशियों का प्रचार प्रसार उसके अनुरूप तेजी पर दिखाई दे रहा है। गौर करने वाली बात यह भी है कि चुनाव आयोग की ओर से प्रत्याशियों पर लगाई चुनावी बंदिशों को देखते हुए प्रत्याशियों की ओर से हर कदम फूंक फूंक कर उठाया जा रहा है। हालांकि प्रत्याशियों के प्रचार वाहन बड़ी तेजी के साथ दौड़ रहे हैं। निर्दलीय और राजनैतिक दलों के प्रत्याशियों ने चुनाव में जीत पाने के लिए अपनी ओर से पूरी ताकत झोंकी हुई है। प्रचार वाहनों से उठने वाला हल्ला यदि गौर से सुनें तो अमूमन हर ओर से उत्तराखंड में सोहल वर्षों में भाजपा कांगे्रस के शासनकाल में भ्रष्टाचार का बोलबाला और राज्य के विकास को अवरूद्घ करने की बात कही जा रही है।
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 को सही मायने में हरीश और भाजपा की लड़ाई कहा जाए तो किन्तु-परंतु नहीं होना चाहिए। गौर करें कि 2012 में हुए विधानसभा चुनाव परिणाम में भाजपा और कांगे्रस के बीच मात्र 1 सीट का अंतर रहा था। अक्टूबर 2009 में पार्टी में मचे तूफान को शांत करने के लिए आलाकमान को उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन का निर्णय लेना पड़ा था। फिर से मुख्यमंत्री बनाए गए भुवन चंद्र खंडूड़ी को हालांकि डैमेज कंट्रोल के लिए अधिक समय नहीं मिल सका था। मगर चुनाव के जो परिणाम आए, उससे खुद पार्टी अचंभित रह गई थी। 2009 तक भाजपा के भीतर कुर्सी को लेकर जिस तरह से खींचतान चलती रही, उससे पार्टी के रणनीतिकार 2012 में चुनाव परिणामों को लेकर चिंता जताने लगे थे। याद करें कि एक समय केंद्रीय नेतृत्व स्वंय उत्तराखंड में दहाई की संख्या से कुछ अधिक सीटों पर जीत मिलने का अनुमान लगाने लगा था, वहीं नेतृत्व परिवर्तन के बाद खंडूड़ी ने मानों चमत्कार कर दिया। दस से ग्यारह सीटों पर सिमटी नजर आ रही भाजपा ने 30 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल कर कांगे्रस को बहुमत से सरकार बनाने से रोक दिया था। हालांकि खंडूड़ी स्वयं चुनाव हारकर कोटद्वार सीट गवां बैठे थे।
इधर कांगे्रस कार्यकाल की बात करें तो 2012 में सत्ता संभालने के साथ ही बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद पार्टी खेमे में बंटी नजर आने लगी। केंद्रीय नेतृत्व को हैरानी तो उस समय हुई जबकि 2013 में पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के उत्तराखंड दौरे पर खुद कांगे्रसी विधायकों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री पर अपनी विधानसभा क्षेत्रों की उपेक्षा करने का खुलेआम आरोप लगाया। कांगे्रस में कुर्सी को लेकर उठापटक बढऩे पर फरवरी 2014 को नेतृत्व परिवर्तन कर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया। पार्टी के भीतर खींचतान तब भी कम नहीं हुई मगर हरीश रावत ने कांगे्रस पार्टी की रार को बाहर आने से काफी समय तक रोके रखा। इधर आपदा का दंश झेल रहे प्रदेश ने रावत के नेतृत्व में पग आगे बढ़ाने की शुरूआत की। हालांकि केंद्र और राज्य कांगे्रस के बीच समय-समय पर जुबानी तकरार भी होती रही। वहीं राजनीति की बाजी चलते हुए केंद्रीय नेताओं ने उत्तराखंड का दौरा शुरू किया, जो कि चुनावी समय पर उफान पकड़े हुए है। 2014 के बाद के प्रदेश के राजनैतिक हालातों पर नजर दौड़ाया जाए तो केंद्र की हर चाल का जवाब हरीश रावत ने मंझे अंदाज में दिया है। मौजूदा समय भी केंद्र सरकार हरीश की घेराबंदी के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़े हुए है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, राष्ट्रीय अध्यक्ष समेत तमाम धाकड़ नेता जब-जब उत्तराखंड आए हैं, हरीश रावत की नीति घेराबंदी करते दिखे।

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