एंटी इनकंबेंसी पर इस बार दोधारी तलवार

एंटी इनकंबेंसी फैक्टर, यह जुमला विधानसभा चुनाव के वक्त सबकी जुबां पर होता है। एंटी इनकंबेंसी, मतलब सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ माहौल और सत्तापक्ष से जुड़े वे सवाल, जिनका जवाब विपक्ष मांगता है। साथ ही, जिनका सीधा असर मतदाताओं के मत व्यवहार पर भी पड़ता है। विपक्ष लाजिमी तौर पर इस फैक्टर को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करता है और सत्तापक्ष की कोशिश रहती है कि किसी भी तरह इसकी धार कुंद कर दी जाए। अगर सत्तापक्ष अपनी सरकार के कार्यकाल के इस नकारात्मक पक्ष के प्रभाव को खत्म या न्यूनतम करने में कामयाब हो जाए तो बेहतर, अन्यथा चुनाव नतीजों से साफ हो जाता है कि मतदाता इनसे संतुष्ट नहीं हुआ। उत्तराखंड में इस विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस को भी एंटी इनकंबेंसी का सामना करना पड़ रहा है मगर दिलचस्प बात यह कि विपक्ष भाजपा इसके बावजूद खुद को बहुत सहज स्थिति में नहीं पा रही है। कारण, कांग्रेस सरकार के पांच साल के कार्यकाल में दो मुख्यमंत्री रहे।

पहले लगभग दो साल विजय बहुगुणा और अंतिम तीन साल हरीश रावत। अब बहुगुणा क्योंकि भाजपा में जा चुके हैं, लिहाजा भाजपा उनके कार्यकाल को तो टार्गेट कर नहीं सकती, बल्कि इसके विपरीत उसे तमाम मुद्दों पर बचाव की मुद्रा अख्तियार करनी पड़ रही है। इस लिहाज से कांग्रेस पर हरीश रावत सरकार के तीन साल के कार्यकाल को लेकर ही एंटी इनकंबेंसी फैक्टर का असर माना जा सकता है।

दोतरफा एंटी इनकंबेंसी का भरोसा

किसी भी चुनाव में प्रत्येक सियासी पार्टी के पास अपने तमाम मुद्दे और रणनीति होती है मगर एंटी इनकंबेंसी एक ऐसा हथियार है जो केवल सत्तारूढ़ पार्टी पर ही वार करता है। अगर सूबे और केंद्र में चुनाव के वक्त एक ही पार्टी की सरकार रहे तो इसका असर कुछ ज्यादा होने का अंदेशा होता है लेकिन दोनों जगह अलग-अलग पार्टी की सरकार होने की स्थिति में दोनों को भरोसा बंधा रहता है कि केंद्र व राज्य सरकारों के एंटी इनकंबेंसी फैक्टर एक-दूसरे पर प्रभावी होंगे।

मसलन, उत्तराखंड में कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी के रूप में चुनाव में जा रही है तो उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा केंद्र में सत्तासीन है। इस लिहाज से देखें तो भाजपा को प्रदेश की रावत सरकार और कांग्रेस को केंद्र की मोदी सरकार पर लागू होने वाली एंटी इनकंबेंसी से उम्मीद है। इनके अलावा बसपा, सपा, उक्रांद जैसी सीमित क्षेत्र में ही दखल रखने वाली पार्टियां इस भरोसे के सहारे हैं कि पिछले तीन विधानसभा चुनाव में मतदाता ने कांग्रेस व भाजपा, दोनों को आजमा लिया, क्या पता इस बार विकल्प की तलाश में उसका रुख उनकी ओर हो जाए।

अस्थिरता का मुद्दा निष्प्रभावी

चलिए अब बात करते हैं सूबे में सत्तारूढ़ कांग्रेस पर प्रभावी होने वाले एंटी इनकंबेंसी फैक्टर की। चुनाव प्रक्रिया के तहत नामांकन हो चुके हैं और बुधवार को नामांकन वापसी के साथ सभी सत्तर सीटों पर चुनावी मुकाबले की तस्वीर साफ हो जाएगी। सूबे में सरकार कांग्रेस की है तो उसकी सरकार का कामकाज मतदाताओं की कसौटी पर रहेगा।

इस विधानसभा में कांग्रेस सरकार में बीच में नेतृत्व परिवर्तन हुआ तो भाजपा के लिए राजनैतिक अस्थिरता के रूप में यह कांग्रेस के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा बन सकता था मगर गत मार्च में कांग्रेस में हुई बड़ी टूट के कारण यह घटनाक्रम सरकार में नेतृत्व परिवर्तन पर हावी हो गया।

इससे सूबे में सियासी अस्थिरता के लिए कांग्रेस को जनता की अदालत में खड़ा करने का एक बड़ा मौका भाजपा के हाथ से फिसल गया। अगर यह कहा जाए कि कांग्रेस ही अब भाजपा के खिलाफ इसे इस्तेमाल कर रही है, तो गलत नहीं होगा।

घोटालों पर आरोप-प्रत्यारोप

ठीक यही स्थिति सरकार के पांच साल के कार्यकाल के दौरान सामने आए घोटालों से बने माहौल के मामले में भी है। उत्तराखंड में सरकार के घोटाले प्रत्येक चुनाव में विपक्ष का एक बड़ा हथियार बनते रहे हैं। साल 2007 के विधानसभा चुनाव में तो भाजपा ने कांग्रेस के 56 घोटालों का इस कदर ढोल पीटा कि उसे जवाब देना मुश्किल हो गया।

तब भाजपा ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ बने माहौल को सुनियोजित तरीके से अपने पक्ष में भुनाया। इस चुनाव में ऐसा मुमकिन नहीं दिखता। हालांकि, भाजपा तमाम घोटालों को लेकर कांग्रेस पर हमलावर है मगर इसमें वह धार नहीं। कारण, कांग्रेस सरकार के पांच साल के कार्यकाल में से पहले दो साल के मुख्यमंत्री तो अब अपने समर्थकों संग भाजपा में हैं। यानी, सरकार के शुरुआती दो साल की एंटी इनकंबेंसी का लाभ उठाने का मौका अब भाजपा गंवा चुकी है।

अंतर्कलह भुनाने का मौका नहीं

उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में एंटी इनबंकेसी के लिए सत्तारूढ़ दल में अंतर्कलह अब तक तीसरा बड़ा कारक बनता रहा है। पांच साल पहले, यानी पिछले चुनाव तक भाजपा और कांग्रेस में कई दिग्गजों का वर्चस्व था। इनके बीच वजूद बनाए रखने की लड़ाई अकसर पार्टी के भीतर कलह का कारण बनती रही लेकिन अब यह हालात नहीं।

कांग्रेस का आंतरिक शक्ति संतुलन अब एक धु्रवीय बनकर रह गया है। कांग्रेस के क्षत्रपों में से पहले 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त पूर्व केंद्रीय मंत्री सतपाल महाराज ने पार्टी छोड़ी और फिर मार्च 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा व तत्कालीन कैबिनेट मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत ने। रही सही कसर पूरी हो गई पिछले दिनों कैबिनेट मंत्री व दो बार के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रहे यशपाल आर्य के भाजपा का दामन थाम लेने से। यानी, कांग्रेस में अब केवल एक क्षत्रप, मुख्यमंत्री हरीश रावत।

हालांकि, प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के साथ रिश्तों में तल्खी रही, मगर रावत अपना सियासी कद इतना बड़ा बना चुके हैं कि यह तल्खी कलह में तब्दील नहीं हो पाई। उधर, भाजपा में पहले ही तीन-तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत दिग्गजों की बड़ी जमात थी और अब तो कांग्रेस के एक पूर्व मुख्यमंत्री कई बड़े चेहरों समेत भाजपा का हिस्सा बन चुके हैं। यानी, अंतर्कलह के आधार पर भी भाजपा एंटी इनकंबेंसी फैक्टर का फायदा उठाने की स्थिति में नजर नहीं आ रही।

घोषणाओं पर पलटवार की रणनीति

एंटी इनकंबेंसी का एक बड़ा कारण होता है सरकार से जनता की अपेक्षाओं का पूरा न हो पाना। मुख्यमंत्री की घोषणाओं को हालांकि तेजी से पूर्ण किए जाने की कोशिश रहती है मगर यह संभव ही नहीं कि जिन तबकों के लिए घोषणाएं की गई, उन सभी को संतुष्ट किया जा सके। मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत पर तो भाजपा पहले से ही घोषणा मुख्यमंत्री होने का आरोप लगा चुकी है।

भाजपा के इन आरोपों पर मुख्यमंत्री का तर्क यही है कि उन्हें तो इस पद पर काम करने के लिए महज तीन ही साल का वक्त मिला। मतलब साफ, मतदाता अगले पांच साल का समय दे तो सभी दावे, वादे और घोषणाएं पूरी कर दी जाएंगी। यही नहीं, मुख्यमंत्री की ओर से इसके लिए सीधे तौर पर अब विपक्ष भाजपा के खेमे में बैठे पूर्व कांग्रेसी नेताओं बहुगुणा, हरक और आर्य को निशाने पर लिया जा रहा है।

स्थाई राजधानी और नए जिलों के सवाल पर मुख्यमंत्री को जरूर कठघरे में खड़ा किया जा सकता है लेकिन यह केवल जनता कर सकती है, भाजपा नहीं। वजह साफ है, भाजपा भी तो लगभग साढ़े छह साल सत्ता में रही, उसने क्यों नहीं जनभावनाओं से जुड़े इन दो सवालों का समाधान किया।

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