पहाड़, महिलायें और शराब

‘‘सामान्यतः पर्वतीय क्षेत्रों को पहाड़ की संज्ञा दी जाती है वैसे भी पहाड़ को कठोरता का पर्याय माना जाता है। पहाड़ का जन जीवन बेहद कठिनाईयों से भरा होता है। कहावत है पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती। कारण पहाड़ का जन जीवन कृषि पर आधारित है कृषि का कार्य पानी के बिना सम्भव नहीं है। यहां की सदा बहार नदियों के पानी से सिंचाई हो पाना सम्भव नहीं है। अतः यहां का जन जीवन वर्षा के पानी पर निर्भर रहता है वर्तमान समय में वर्षा-चक्र के बिगड़ जाने से कृषि कार्य में व्यवधान आना स्वाभाविक है इसके साथ ही पहाड़ की भौतिक सम्पदा का उचित नियोजन व दोहन न हो पाने के कारण यहां के लोगों को समुचित रूप से रोजगार नहीं मिल पाता है। इस कारण पहाड़ में बेरोजगारी का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है यही कारण है कि पहाड़ का अधिकांश पुरूष वर्ग रोजगार की तलाश में यहां से पलायन कर मैदानी क्षेत्रों में चला जाता है।’’

जहां एक ओर सरकार उत्तराखण्ड में विकास को अन्तिम छोर तक पहुंचान का दावा करती है वहीं स्थिति इसके विपरीत नजर आती है। पहाड़ का नौजवान रोजगार के लिए मैदान की ओर पलायन करता है। पुरूषों के रोजगार की तलाश में चले जाने के कारण घर-परिवार की सम्पूर्ण जिम्मेदारी महिलाओं के उपर आ जाती है। महिलाओं को पहाड़ की रीढ़ माना जाता है क्योंकि महिलायें पहाड़ की अर्थव्यवस्था की धुरी है। हाड़ कंपाने वाली ठन्डक हो या गर्मी वे हमेशा अपने कार्य के प्रति संलिप्त रहती हैं क्योंकि उन्हें अपने उत्तरदायित्व का बोध कराती परिवार के पालन-पोषण में एक मां की भूमिका। हमारे धर्म ग्रन्थों मेंभी मां की भूमिका को परिभाषित करते हुए कहा है कि – ‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः। नास्ति मातृसमं न्राणं, नास्ति मातृसमाप्रियाः’। अर्थात माता के तुल्य कोई छाया नहीं है, माता के तुल्य कोई सहारा नहीं है। माता के सद्दश कोई रक्षक नहीं तथा माता के समान कोई प्रिय वस्तु नहीं। सन्तति निर्माण में माता की भूमिका पिता से हजार गुणा अधिक है। माता के रूप में नारी अम्बा है संतान निर्भायी है दया है, क्षमा है, कल्याणी है। मां जैसा त्याग ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त कोई और नहीं कर सकता। मां सर्व व्यापक सत्ता की प्रतिमूर्ति है।
इतना सब कुछ होने के पश्चात भी पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं का कितना आदर व सम्मान होता है ये सब जग जाहिर है। मंचों व सभाओं मेें महिला सशक्तिकरण के सन्दर्भ में जो व्याखान दिये जाते हैं वे यथार्थ धरातल में कितने कारगर हो रहे हैं इस बात से सिद्ध हो रहे हैं कि इक्कीसवी सदी मंे भी हम लड़का-लड़की में भेद वाली सोच से बहार नहीं निकल पा रहे हैं इतना ही नहीं आये दिन महिलाओं के साथ हो रही छेड़खानी, अभद्रता, गाली-गलोच, हत्या, बलात्कार, चेन-स्नैचिंग, दहेज हत्या, अनैतिक देह व्यापार और महिलाओं के प्रति हो रहे भेद-भाव से जाना जा सकता है कि आज भी महिलाओं के प्रति हमारी दकियानूसी सोच विद्यमान है।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि आज भी समाज में महिलाये कितनी असुरक्षित हैं। समाज ही नहीं अपितु परिवार में भी महिलायें अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रही हैं इसके पीछे आज भी कहीं न कहीं महिला स्वतंत्रता विरोधी मानसिकता दिखायी दे रही है हमें सामाजिक मूल्यों से कोई सरोकार नहीं। यही कारण है परिवार में पुरूषों द्वारा शराब पिये जाने के कारण महिलायें घरेलु हिंसा की शिकार होती हैं पुरूषों में बढ़ती नशापान की प्रवृत्ति महिलाओं के लिए चिंता का विषय है। कारण नशा नाश क कारण है जिसे महिलायें अच्छी तरह से समझती हैं उन्हें मालूम है शराब स्वयं के लिए तथा परिवार के लिए कितनी घातक होती है। पहाड़ में हर स्तर पर शराब पर हमेशा बड़स चलती रही है और कई वर्षों से शराब पाबंदी को लेकर जहां समय-समय पर आंदोलन होते रहे हैं वहीं सरकार द्वारा प्रतिवर्ष राजस्व में बढ़ोत्तरी के लिए जगह-जगह शराब की दुकानों का आवंटन किया जाता रहा है। उसी तर्ज पर महिलाओं द्वारा जगह-जगह पर शराब पाबंदी को लेकर आंदोलन किये जाते रहे हैं उन्हें मालूम है घरों के चिराग बुझाने में शराब कितनी कारगर हो रही है। राज्य में हर साल शराब का सेवन करने से सैकड़ों लोग असमय मौत के शिकर हो रहे हैं लेकिन इसकी चिंता करने वाला कोई नहीं है। ऐसा नहीं है कि पहले शराबबन्दी को लेकर आंदोलन न हुए हों। आंदोलन क्या कई जाबांजों ने इस बुराई को समाप्त करने के लिए अपने प्राणों तक को न्यौछावर कर दिया परन्तु खेद है उन्हें याद करने वाला कोई नहीं। शराब एक सामाजिक समस्या है। पहाड़ की रीढ़ समझी जाने वाली महिला इससे सबसे अधिक त्रस्त है कारण पहाड़ के अधिकांश लोग आर्मी में सेवारत हैं जो शराब सप्लायर्स का कार्य करते हैं यानि जब भी वे आर्मी से घर आते हैं तो अपनें साथ जितना अधिक हो सके शराब की बोतले लाते हैं जो सेवानिवृत्त हो चुके हैं उन्हें सरकारी कोटे की शराब मिलती है। अब तो फौजी की विधवा को भी शराब मिलने लगी है। आर्मी में शराब परोसने का काम अंग्रेजों के शासन काल से चला आ रहा है स्वतंत्रता के बाद इसमें और अधिक तेजी आयी है। जाना जाता हैकि पहले पर्वतीय क्षेत्रों में शराब संस्कृति इतनी व्यापकता से फैल चुकी है कि घर-घर इसने अपनी जड़े जमा दी हैं आर्मी की शराब के साथ-साथ स्थानीय रूप से अवैध शराब का उत्पादन भी लोग करने लगे हैं इसके उत्पादन में लोग यूरिया खाद, टार्च के सेल, बिच्छुघास, रामबांस, वनस्पतिक जहरीले पौधों का इस्तेमाल कर दारू अथवा ठर्रा नाम से बेचते हैं जो अत्यधिक नशीली होती है। इसके अधिक सेवन से व्यक्ति असमय ही काल का ग्रास बन जाता है। अथवा पागल बन जाता है और शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है उसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है।
पर्वतीय क्षेत्रों के बेरोजगार युवा जब नौकरी की तलाश में घर से बाहर जाते हैं तो वे बुरी संगत में पड़कर नशाखोरी की लत से ग्रस्त हो जाते हैं कई युवा अवसाद के कारण भी नशे के शिकार होते हैं। इसी बीच नौकरी में होने का झांसा देकर पारिवारिक जन उसकी किसी भेली भाली लड़की से शादी करवा देते हैं। कुछ समय बाद ये युवा घर आ जाते हैं यहीं से शुरू होती है इनके दामपत्य जीवन की शुरूआत, जो किसी भी महिला के लिए सबसे अधिक पीड़ादायी है उसके पति का शराबी होना। पति का सुबह घर से चला जाना, देर शाम शराब पीकर घर आना तथा बच्चों व पत्नी से लड़ाई-झगड़ा करना। भला किस पत्नी को अच्छा लगता होगा। घर में छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल उन्हें पढ़ाने का जिम्मा सिर्फ एक पत्नी का है अनगिनत प्रश्न महिला को अन्दर ही अन्दर कचोटते रहते हैं। इतना ही नहीं शराबी पति द्वारा परिवार में जो कलह और दुव्र्यवहार किया जाता है उससे महिला की सामाजिक प्रतिष्ठा पर भी प्रश्न चिहन लग जाता है। लोग शराबी पति को दोष न देकर महिला पर ही दोवारोपण करते पाये जाते हैं। परिवार में महिला के लिए सबसे अधिक संवेदनशील स्थिति होती है पति और पुत्र के बीच, क्योंकि पति कसनी है तो पुत्र ताना मारता है माता पर। पुत्र कसनी है तो पिता ताना मारता है पत्नि पर। ऐसी स्थिति में महिला के लिए आगे कुंआ तो पीछे खाई वाली कवाहत चरितार्थ होती है और ये ही घरेलु कलह के कारण भी होती है।
शराब के कारण महिलाओं पर होने वाली घरेलु हिंसा व उनकी वास्तविक पीड़ा को देखते हुए मैंने विगत कई वर्षों से बच्चों व महिलाओं को लेकर नशामुक्ति अभियान संचालित किया है जिसके तहत अभी तक पांच हजार से अधिक गोष्ठियों का आयोजन तथा अनेक पद यात्रायें की जा चुकी हैं। विद्यालयों व ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण कर बच्चों व महिलाओं को नशे से होने वाली घातक बीमारियोें की जानकारी के साथ-साथ उन्हें उससे बचाव के कारगर उपाय भी बताये जाते हैं तथा बालिकाओं को प्रेरित किया जाता है कि वे शराबी अथवा व्यसनों युवकों से शादी न करें। इस अभियान का व्यापक प्रभाव बच्चों व बालिकाओं में पड़ा। अनेक युवा व्यसनों से मुक्त हुए तथा अनेक बालिकाओं ने शराबी युवकों से शादी करने से माना कर दिया।
इस अभियान का महिलाओं पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा जिस कारण आज बड़ी निडरता के साथ महिलायें शराब विरोधी आंदोलन को संचालित कर रही हैं। इससे यही आशा जगती है कि आने वाले समय में यह आन्दोलन और
अधिक उग्र रूप धारण कर सफलता को प्राप्त करेगा। इस बीच उत्तराखण्ड भ्रमण के दौरान मैंने देखा कि जिला मुख्यालयों, तहसीलों, ब्लाकों, कस्बों यानी स्थान-स्थान पर महिलायें हाथों में बिच्छुघास लेकर शराब पाबंदी एवं शराब की दुकानों को अपने क्षेत्र से हटवाने के लिए आन्दोलनरत थीं तो उसमें पुरूषों की भागीदारी नाम मात्र थी। जो खेद का विषय है। इससे स्पष्ट होता है कि आज भी पुरूषों की संवेदना महिलाओं के प्रति कितनी है ऐसी स्थिति में महिलाओं को और
अधिक संगठित तथा ताकतवर होने की आवश्यकता है। इस अस्त पहाड़ मस्त की कहावत के चरितार्थ मैंने उत्तराखण्ड भ्रमण के दौरान पाया कि आज पहाड़ में आये दिन शराब की खपत दिन दूनी राज चैगुनी बढ़ री है। जो आने वाले समय के लिए अशुभ संकेत हैं। पहाड़ के गांव कूचों तक शराब की दुकानें खुलना पहाड़ के लिए दुर्भाग्य है। जिस पहाड़ को देवभूमि कहा जाता है वहां शराब की गंगा बहाना कहां की बुद्धिमता है। यही कारण है कि आज यहां का युवा, वृद्ध यहां तक की वयकिशोर उम्र गच्चे भी शराब उड़लने में संकोच नहीं कर रहे हैं। उन्हें अपनी मर्यादाओं का तनिक भी ध्यान नहीं है। इतना ही नहीं शराब ने यहां के सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमों में भी अपना जलवा बिखेर दिया है। आज पर्वतीय क्षेत्रों में कोई भी आयोजन चाहे नामकरण संस्कार हो अथवा विवाह संस्कार यहां तक की शव यात्रा भी बिना शराब के अधूरी मानी जाती है। आश्चर्य तो तब होता है जब सत्यनारायण की कथा में खाने से पहले लोग शराब की मांग करने लगते हैं। आज अधिकतर लोग इन आयोजनों में शराब परोसना शान और सम्मान का सूचक मानने लगे हैं। जो जितना बड़ा माफिया या अपराधी है वह उतना ही अधिक समाज में शराब परोसकर अपनी प्रतिष्ठा बनाने की फिराक में रहता है कोई भी इसका विरोध नहीं करता है। कारण समाज में आये दिन शराबियों की संख्या में इजाफा हो रहा है। शराब का सेवन नहीं करने वाले लोगों को अंगुलियों में गिना जा सकता है। यही कारण है आज समाज में शराब हैसियत और प्रतिष्ठा का पैमाना माना जाने लगा है।
समाज में शराब के प्रचलन ने सबसे अधिक प्रभावित बच्चों व महिलाओं को किया है। ये दोनों ही घरेलु हिंसा के सबसे अधिक शिकार होते हैं। भले ही सरकार द्वारा इनकी सुरक्षा को लेकर कानून बना दिया है फिर भी यथार्थ रूप से उसका पालन हो पाना बड़ा कठिन कार्य है। आज समाज में महिलाओं के प्रति आपराधिक गतिविधियां का ग्राफ बढ़ा है। कारण कानून बना देने से ही
अपराध समाप्त नहीं हो जाते हैं। जब तक पुरूषों की सोच महिलाओं के प्रति नहीं बदलेगी तब तक यह ग्राफ कम नहीं होगा। इसके लिए समाज परिवर्तन आवश्यक हेै जो जागरूकता से ही सम्भव है जब पुरूषों में ‘परदारेषु मातृवत्’ की भावना जागृत होगी तब महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे।
आज आवश्यकता है महिला शक्ति को संगठित होने की। उसे अच्छे और बुरे के भेद को समझना होगा और अच्छाई को स्वीकार करने का संकल्प लेकर समाज की बुराईयों को दूर करने के लिए सशक्त होना होगा क्योंकि एक महिला मेें ही मां की शक्ति नीहित है उसके कई रूप हैं वह कभी जननी तो कभी पोषण करने वाली भरणी है। वह अपने परिवार और बच्चों पर अपना सर्वस्व-न्यौछावर कर देती है। मां किसी भी दशा में अपने संतान का बुरा नहीं चाहती है। आज पूरा समाज नशा रूपी राक्षस के मुख में समा रहा है। ऐसी स्थिति में पर्वतीय क्षेत्र की महिलाओं द्वारा शराबबन्दी आंदोलन चलाकर उत्तराखण्ड को ‘नशा मुक्त राज्य’ बनाने की कवायद एक प्रशंसनीय एवं वन्दनीय कार्य है। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से इस आंदोलन को संचालित कर रही माताओं, बहिनों को मेरा सत् सत् नमन है। इसी आशा के साथ आने वाला समय महिलाओं का होगा जो एक नये युग का सूत्रपात करेगा।

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