जल को देवता माना गया है वेदों में

ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि ‘जल‘ विष्णु का निवास स्थान (अथवा जल ही उनका स्वरूप) है। विष्णु ही ‘जल‘ के स्वामी हैं। इस कारण सदैव जल में पापहारी विष्णु का स्मरण करना चाहिए। सभी देवगण जल रूप हैं। पितृगण भी जल रूप ही हैं। इस कारण पितरों से अपनी भलाई की अपेक्षा करने वाले क¨ जल में ही पितरों का ‘तर्पण‘ करना चाहिए। रुद्रय्ाामल तन्त्र के अनुसार ‘जल के अधिपति‘ श्री गणेश जी हैं।

वेदों में जल को एक महनीय देवता माना गया है। ऋग्वेद के चार स्वतंत्र सूक्तों में जल की देवता रूप में स्तुति की गयी है। इसके अतिरिक्त कई प्रकीर्ण सूक्तों के कतिपय मंत्रों में इनकी स्तुतियां प्राप्त होती हैं। साथ ही वाजसनेयी, काठक, कपिल, काण्व, तैत्तिरीय, मैत्रायणीय आदि संहिताओं के अतिरिक्त अर्थवण संहिता में भी जल देवता से संबंधित अनेक सूक्त तथा मंत्र भी उपलब्ध होते हैं। आचार्य यास्क ने जल देवता को मध्यम स्थानीय देवता मानकर प्रसिद्ध अप्-सूक्त की विस्तृत व्याख्या की है।

मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के शरीर में जल का पर्याप्त भाग है और उसे पान किये बिना बहुत देर तक कोई जीवित नहीं रह सकता तथा मनुष्य की पवित्रता संबंधी शौच, स्नान, मार्जन, प्रक्षालन, देवपूजन आदि सभी क्रियाएं एकमात्र जल पर ही आलम्बित रहती हैं। संध्यादि कर्मों में स्नान, मार्जन, अघमर्षण आदि से सूर्याध्र्य पर्यन्त जल का ही मुख्य प्रयोग होता है।

कृषि, अन्नपाक और वस्त्र आदि प्रक्षालन की क्रियाओं में जल देवता ही मुख्य कारण हैं। नदी आदि तीर्थों तथा भूमि के भी अन्तर्भाग में जल ही व्याप्त हैं। इसीलिये सम्पूर्ण प्राणी जलाधार पर ही अधिष्ठित रहते हैं और मत्स्यादि जलचों के लिए तो जल देवता ही सब कुछ हैं। इसलिये इन्हें जगत का जीवन कहा गया है और कोई भी प्राणी इनके उपकारों का बदला नहीं चुका सकता। अतः जल देवता की जितनी भी पूजा उपासना की जाये अल्प ही है।

जल का एक नाम जीवन है। यह प्राणी के जीवन का आधार है। इस जल के अधिपति देवता वरुण हैं। वेद ने आदेश दिया है कि हम प्रतिदिन जलाधिपति वरुण की नित्य प्रार्थना इस प्रकार किया करें- ‘हे दिव्य जलाधिपति वरुणदेव! आप हमारे स्नान और पान में सुख प्रदान करते रहें। यह जल हमारे रोगों का शमन करे और सारी भीतियों को भी भगाता रहे।’

ऋग्वेद में भी आया है कि वरुण देवता के गृह जलीय होते हैं। विश्वकर्मा ने इनकी सभा जल के भीतर रहकर ही बनायी थी। वहां प्रह्लाद, बलि आदि दैत्य, वासुकि आदि नाग उनकी उपासना में रत रहते हैं। जल के साथ वरुण देवता के इस घनिष्ठ संबंध को सूचित करने के लिए शास्त्र ने इनके अम्बुद, अम्बुपति, अपाम्पति, जलाधिपति, यादसाम्भर्ता आदि बहुत-से नाम बताये हैं।

हरिवंश, भविष्यपर्व में वर्णन आता है कि उपयुक्त अवसर आने पर इनकी सहायता के लिए चारों ओर से समुद्र इनको घेरकर खड़े हो जाते हैं। नाग, कच्छप और मत्स्य भी इनको चारों ओर से घेरकर अपनी कर्तव्यनिष्ठा निभाते हैं। निरुक्त ने ऋग्वेद की एक ऋचा उद्धृत कर यह बताया है कि वरुण देवता मेघ मण्डल के जल में विचरण करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर पृथ्वी पर जल बरसाते हैं। ये निरन्तर मनुष्यों के कल्याण में लगे रहते हैं।

(Ashoknath Bardwaj)

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