उत्तराखण्ड का गौरवमयी इतिहास

(www.kaumiguldasta.com): आईए उन तथ्यों पर गौर करें जिसकी वजह से उत्तराखण्ड का नाम भारतीय सेना के इतिहास में एक मिसाल के रूप में दर्ज है। उत्तराखण्ड की जनता ने हमेशा ही देश की रक्षा की है। आजाद हिन्द की संख्या चालीस हजार थी उसमें 23 हजार 5 सौ 66 भारतीय थे उनमें 2500 गढ़वाली थे। इसमें 600 से अधिक गढ़वाली सैनिक युद्ध में मारे गये। सिर्फ यही नहीं आजादी के बाद हुए युद्धों तक पूरे उत्तर प्रदेश के 2334 जवान शहीद हुए जिसमें से आधे से भी अधिक 1234 शहीद उत्तराखण्ड क्षेत्र के रहे हैं। इन युद्धों में 430 शौर्य और वीरता के लिए जो पदक प्राप्त हुए उनमें भी आधे से अधिक 233 पदक उत्तराखण्ड के सैनिकों ने प्राप्त किए। अपने आप में यह गौरव का विषय है कि मात्र दो कमिश्नरियों वाले प्रदेश की दोनों ही कमिश्नरियों रेजिमेंट गढ़वाल और कुमाऊँ बनी है। वर्ष 1962 में चीन युद्ध के दौरान गढ़वाल राइफल्स की चैथी बटालियन के 200 सैनिकों का बलिदान और 1947 के कश्मीर युद्ध में श्रीनगर को बचाने के लिए कुमाऊँ रेजीमेंट की चैथी बटालियन का योगदान भारतीय सेना के इतिहास में एक मिसाल के रूप में दर्ज है। बात करते हैं आंदोलनों से उत्तराखण्ड के रिश्ते की, आंदोलनों से इस क्षेत्र का पुराना नाता रहा है। स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन हो या फिर राजशाही के खिलाफ हक हकूकों की लड़ाई, उत्तराखण्ड आंदोलनों की जननी रही है। स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन व राज्य निर्माण आंदोलन के बीच तमाम आंदोलन ऐसे रहे हैं जिसने उत्तराखण्ड को विशिष्ट पहचान दिलायी। चिपको आंदोलन, राजशाही के खिलाफ हुआ आंदोलन, आराक्षण विरोधी आंदोलन, बांध विरोध आंदोलन इस क्षेत्र के प्रमुख आंदोलन रहे। आजादी की लड़ाई में अविस्मरणीय योगदान करने वाले उत्तराखण्ड के यशस्वी सपूत वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के पेशावर में 23 अप्रैल 1930 को जिस सैनिक क्रांति का सूत्रपात किया वह पेशावर कांड आजादी के इतिहास का स्वर्णिम पाठ है। गौरतलब है कि पेशावर कांड की घटना से प्रभावित होकर मोतीलाल नेहरू ने पूरे देश में गढ़वाल दिवस मनाने की घोषणा की थी। अब बात आती है अलग राज्य के आंदोलन की, उत्तराखण्ड के रूप में अलग राज्य की परिकल्पना दरअसल आजादी से भी पहले की रही है। वर्ष 1937 में 5 से 6 मई को श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कांग्रेस के विशेष राजनैतिक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि इस पर्वतीय अंचल को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने का अवसर और अधिकार मिलने चाहिए।आजादी से पहले कुमाऊँ केशरी बद्रीदत्त पाण्डे व गढ़ केशरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊँ-गढ़वाल को अलग इकाई के रूपमें स्थापित करने की मांग उठाई थी। वर्ष 1955 में फजल अली कमीशन ने उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन की बात इस क्षेत्र को अलग राज्य बनाने के दृष्टिकोण से की थी। सन् 1956 में राज्य पुर्नगठन आयोग ने प्रदेश के शीर्ष राजनैतिक दबाव में उत्तर प्रदेश की सीमा रेखाओं को छुआ तक नहीं लेकिन पर्वतीय क्षेत्र के लिए अलग राज्य के बारे मेंविचार जरूर किया। वर्ष 1957 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टीटी कुष्णाचारी ने पहाड़ी क्षेत्रों की समस्याओं पर विशेष ध्यान देने का सुझाव दिया जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया। 19 नवम्बर 1957 को पंजाब, हिमाचल व उत्तर प्रदेश के संसद सदस्यों ने योजना आयोग के अंतर्गत एक पहाड़ी योजना समिति का सुझाव पहाड़ी क्षेत्र के विकास को दृष्टिकोण रखते हुए दिया, जिसे स्वीकार नहीं किया गया। वर्ष 1970 में 12 मई को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिल्ली वासियों को सम्बोधित करते हुए स्पष्ट कहा कि उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों के पिछड़ने और गरीबी का दायित्व केन्द्र व राज्य सरकार दोनों का है। इसके बाद एक महत्वपूर्ण घटना क्रम में 1987 में भारतीय जनता पार्टी ने इस पहाड़ी क्षेत्र के लिए लाल कृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में अल्मोडा में आयोजित बैठक में अलग उत्तराखण्ड राज्य कीबात को स्वीकारा। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने 1991 में विधानसभा में उत्तरांचल राज्य का प्रस्ताव पास कर केन्द्र सरकार की स्वीकृति के लिए भेजा। वर्ष 1992 में गठित योजना आयोग की एक विशेष समिति की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों में बेरोजगारी की समस्या प्रमुख है। इसके कारण यहां के युवकों का पलायन तीव्र गति से जारी है। इसी रिपोर्ट में सुझाव गया कि इस स्थिति से निपटने के लिए अन्य हिमालयी राज्यों की तर्ज पर इस क्षेत्र को भी अपनी समस्याओं के समाधान की दिशा में प्राथमिकता देनी होगी। उत्तराखण्ड राज्य के लिए आंदोलन प्रारम्भ होते ही तत्कालीन सपा बसपा सरकार ने कौशिक समिति की सिफारिश पर अलग उत्तराखण्ड राज्य का प्रस्ताव विधानसभा में सर्वसम्मति से पास कराया जिसे केन्द्र सरकार को भेज दिया गया। राज्यों के निर्माण एवं पुर्नगठन के इतिहास में यह पला मौका था जब किसी प्रदेश की दो विधानसभाओं व सरकारों ने अपने-अपने कार्यकाल में किसी क्षेत्र विशेष की जनभावनाओं को देखते हुए अलग राज्य के गठन का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार से उत्तराखण्ड राज्य बनाने की मांग की। 09 नवम्बर 2000 को उत्तराखण्ड राज्य अस्तित्व में आया।

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