क्या हैं मोदी की जीत के मायने?
यूपी सहित पांचों राज्यों में हुए चुनाव के नतीजों का बड़ा असर देश की राजनीति पर पड़ने वाला है. क्षेत्रीय पार्टियों के लिए इसके अलग मायने हैं और राष्ट्रीय पार्टियों के लिए अलग. कम से कम बीजेपी लिए कांग्रेस मुक्त भारत का एजेंडा और मज़बूती से हकीकत में बदलता दिख रहा है.
राजनीति के गलियारों में एक बात खूब कही जाती है कि दिल्ली जाने का रास्ता यूपी से होकर जाता है. मतलब अगर आपको केंद्र की सत्ता अपनी मुट्ठी में रखनी है तो उसकी चाभी यूपी के पास है. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यही चाभी पा ली. अब 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को चाभी दोबारा मिली है. इसलिए इसके मायने बेहद अहम हैं. इस जीत का मतलब ये है कि 2014 की मोदी लहर अभी तक बनी हुई है. जिस बीजेपी को बनियों की पार्टी कहा जाता था अब उसने अपने साथ दलितों और पिछड़ों के एक बड़े हिस्से को जोड़ लिया है. बीजेपी के लिए नोटबंदी के जिस बुरे असर की बात कही जा रही थी वो फुस्स साबित हो गयी है. मोदी सरकार के ढाई साल के कामकाज से लोगों को अबतक कोई नाराज़गी नहीं हुई है. सबसे अहम बात ये है कि मोदी 2019 के लिए बेहद मजबूत होकर उभरे हैं. मोदी की मज़बूती का अंदाज़ा आपको बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस बयान से हो जाएगा. नीतीश ने कहा, ‘’यूपी में पिछड़े वर्गों के बड़े तबके ने बीजेपी को समर्थन दिया, गैर-बीजेपी पार्टियों ने उन्हें जोड़ने की कोशिश नहीं की और बिहार की तर्ज पर यूपी में महागठबंधन नहीं हो पाया. नोटबंदी का भी इतना कड़ा विरोध करने की जरूरत नहीं थी.’’
मोदी की इस जीत का असर संसद के भीतर समीकरणों पर भी पड़ने वाला है. यूपी की जीत बीजेपी को वहां भी मज़बूत करने वाली है. इस जीत के बाद बीजेपी राज्यसभा में मजबूत हो जाएगी. राष्ट्रपति चुनाव में भी मोदी की ताकत बढ़ जाएगी. संसद में सरकार को बिल पास करवाने और बड़े नीतिगत फैसले लेने में भी कोई संकोच नहीं करना होगा. इसी साल के आखिर में होने जा रहे गुजरात चुनाव पर भी इसका असर होगा.
राहुल गांधी के लिए पंजाब चुनाव की जीत थोड़ी राहत भले ही लेकर आयी हो, लेकिन यूपी की हार कहीं ज्यादा मुश्किलें लेकर आ सकती हैं. उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय पार्टी का रूतबा लगातार कम होता जा रहा है और इसी का फायदा बीजेपी उठा रही है. राहुल के कमज़ोर नेतृत्व से मोदी के कांग्रेसमुक्त भारत के एजेंडे को मज़बूती मिल रही है. यूपी की इस जीत के साथ ही देश की 58 फीसदी आबादी पर बीजेपी और उसके सहयोगियों का राज हो गया है और इसी वजह से कांग्रेस के भीतर नेतृत्व परिवर्तन की ज़ोरदार मांग भी उठ सकती है.