कृष्ण भक्ति के महाकवि सूरदास

kaumiguldasta.com : महाकवि सूरदास का हिंदी जगत के साहित्य में अप्रतिम स्थान है। सूरदास के जन्म तिथि स्थान व उनके जन्मांध होने पर विद्वानों में मतभेद हैं। लेकिन उनकी महानता व कृष्णभक्ति को लेकर सभी विद्वानों में एकरूपता है। सूरदास की साहित्यिक रचनायें हिंदी जगत के लिए मील का पत्थर साबित हुई हैें। सूर को पढे़ं बिना हिंदी साहित्य को नहीं समझा जा सकता। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म संम्वत 1540 के लगभग आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क के किनारे बसे हुए रूनकता नामक ग्राम में हुआ था।जबकि दूसरे विद्वानों का मत है कि सूरदास जी का जन्म दिल्ली के समीपस्थ सीढ़ी नामक ग्राम में हुआ था।इसी प्रकार कुछ का मत है कि सूरदास सारस्वत ब्राहमण थे जबकि कुछ का मत है कि आप चन्दवरदाई के वंषज हैं।सूरदास जी बचपन से ही अंधे थे। लेकिन उन्होनें अपनी रचनाओं में जिस प्रकार से अनुपम तथा सजीव वर्णन दृष्यों से प्रभावित होकर किया है उससे कुछ विद्वान उन्हें जन्मांध नहीं मानते हैं। उनको जन्मांध बताने वाले विद्वान स्वाभाविक सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्य भावों के वर्णन का श्रेय एकमात्र भगवान कृष्ण की कृपा को ही मानते हैें। भक्तमाल पुस्तक के आधार परभी सूरदास बचपन से ही अंधे हैं।प्रसिद्ध वैष्णवाचार्य स्वामी वल्लभाचार्य सूरदास के गुरू थे। उनकी आज्ञा पाकर ही श्रीमदभागवत को आधार मानकर सूरसागर की सफल रचना की।सूरदास जी ने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में पदों की रचना की है। उन्होनेंअपने साहित्य में बालकों की स्वाभाविक चेष्टाओं प्रकृति के अपरिवर्तित तथ्यों , रूपों तथा रंगों का जैसा सूक्ष्म,सरल एवं मार्मिक वर्णन किया है वह एक जन्मांध साधारण व्यक्ति से विष्वासा नहीं किया जा सकता। सूरदास वैष्णव सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ पुष्टिमार्ग के संत थे। भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति से ओतप्रोत होने के कारण काव्य में सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखा है। सूर साहित्य में वात्सल्य, श्रृंगार का अनुपम एवं बेहद सजीव वर्णन किया है। साहित्य में श्रृंगार रस के संयोग तथा वियोग काजो सांगोपांग सजीव चित्रण अपनी रचनाओं में किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता है। रासलीला, मुरली माध्ुारी, चीरहरण आदि में संयोग श्रृंगार का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। इसी प्रकार कृष्ण के मथुरा चले जाने पर विरहिणी गोपियों की अन्र्तदषाओं का वर्णन वियोग श्रृंगार के रूप में दिखाई पड़ता है।महाकवि सूरदास के साहित्य की षैली गीतकाव्य की मनोरमा षैली है। जिसमें तीन रूप मिलते हैं कथात्मकष्षैली, भावपूर्ण शैली और अस्पष्ट शैली। सूरदास जी ने अपने साहित्य में षुद्ध साहित्यिक ब्रज भाषा को अपनाया है। सूर साहित्य में संस्कृत षब्दों का प्रयोग बड़ें ही आकर्षक ढंग से हुआ है। भाषा में मुहावरों तथा कहावतों का प्रयोग भी बड़ी सुंदरता के साथ किया है। श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहां तक सूर की सूर की दृष्टि पहुंची है वहां तक किसी और कवि की नहीं।सूर केे अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सदगति मिलती है। अटल भक्ति ज्ञानयोग, कर्मयोग से श्रेष्ठ हैं। सूर ने अपनी प्रतिभा के बल पर कृष्ण के बाल स्वरूप का अतिसुंदर, सरस सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। सूर ने विनय पद भी लिखे हैं। सूर ने अपने साहित्य में यषोदा के शील, गुण आदि का संुदंर चित्रण किया है। सूरकाव्य मेें प्रकृति सौंदर्य का सजीव और सूक्ष्म वर्णन किया है।सूर का काव्य कलापक्ष भावपक्ष की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण हैं। सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं क्योंकि उन्होनें न केवल उतार चढ़ाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को पल्लवित किया वरन कृष्ण काव्य की विशिष्ट परम्परा को भी जन्म दिया। सूर का कृष्ण काव्य व्यंग्यात्मक भी है। इसमें उपालंभ की प्रधानता है । सूर का भ्रमरगीत इसका ज्वलंत उदाहरण है। सूर की कृष्ण काव्यधारा में ज्ञान और कर्म के स्थान पर भक्ति को प्रधानता दी गयी हैं। सूर साहित्य मंे ग्राम प्रकृति का भी सुंदर एवं सजीव चित्रण मिलता है।सूर की प्रमुख रचनाओं में सूरसागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल- दमयन्ती तथा ब्याहलो प्रमुख हैं जिसमें अन्तिम दो अप्राप्य हैं।
सबसे प्रसिद्ध रचना सूरसागर है। जिसमें सवा लाख पद बतायें जाते थे किंतु दुर्भाग्य से केवल छह से सात हजार पद ही मिलते हैं।विद्वानों का मत है कि सूरदास जी की मृत्यु पारसौली नामक ग्राम सम्वत 1620 में हुई थी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *